Wednesday 7 October 2015

लिखना है तुम्हें ...

एक बार लिखना है तुम्हें..पन्नो पर ...
अनदेखे-अनजाने ही सही तुम
तो क्या हुआ ..
जो मिले नही कभी हम
यूँ लगता है ..हर पल साथ है तुम्हारा
सुना नही मैंने कभी तुम्हे
पर कानों में तुम कुछ कह कर चले जाते हो अक्सर
और मैं हँस पड़ती हूँ खिलखिलाकर ...
पास नही हो मेरे तुम
पर दुनिया जाने क्यों लगने लगी है रोशन ...
हर चीज अच्छी लगने लगी है
बेवजह की बातें भी अब प्यारी लगने लगी हैं ...
कोई ख्वाहिश भी नही है कि मिलें हम
सिर्फ इस एक एहसास को जीना चाहती हूँ...
बस पन्नों पर तुम्हे छूना चाहती हूँ...

Sunday 4 October 2015

और तुम चले गये....

अभी तो बातें थी बहुत ...
जो मुझे कहनी थी
और शायद कुछ बाते तुम्हारी
जो मुझे भी सुननी थी
अभी तो सिलसिले शुरू ही हुए थे...
और तुम चले गये...

अभी तो हाथ थाम कर
चाँद देखना था
और आसमां से लटके तारो से
कोई ख्वाब बुनना था
अभी तो शाम आई ही थी...
और तुम चले गये...

अभी तो सपनो का
आशियाना बनाना था
और अपने अरमानो से रोशन
आँगन सजाना था
अभी तो सफर शुरू ही हुआ था...
और तुम चले गये ...

अभी तो बारिशों का
मौसम भी बचा था
इन खिले फूलों के संग
हमें भी तो भीगना था
अभी तो हवाएँ खुश्बू लाई ही थी...
और तुम चले गये...