Saturday 17 September 2016

इत्ता सा टुकड़ा चाँद का...

                       
चाँद की ठोकर लगी
सारे सितारे बिखर गए ...

महक रही भीनी खुश्बू सी
किसने लगाई रात के हाथों में चाँद-सितारों की मेंहदी सी....

धूप के बिखरे रंगों को बटोर के
चाँद की कटोरी से रात में उड़ेल दें....

बची धूप के टुकड़े चलो उठा लाएँ
चाँद की आरी से सितारे बनाकर आसमान में टाँक आएँ...

इक चाँद टाँग दो रोशनी के लिए
कि आसमां से भी ऊँचे ख़्वाब हैं मेरे..

चाँद के हाथों आसमां थमा गया
समुंदर पर सर रख सूरज सो गया...

चाँद- तारों की छत तले
चंद सपने टहलने चले


Tuesday 26 July 2016

शाम होते जल जाते हैं आँखों में उम्मीदों के दिए

सुलझी हुई राहों को उलझाने के लिए आ जाता है
वो मुझे फिर से बिखराने के लिए आ जाता है

साहिल पर बिखरी रहती हैं जो यहाँ रेत सी ख़्वाहिशें
सागर कोई फिर इन्हे बहाने के लिए आ जाता है

बहुत अंधेरें फैलते हैं जब ख़्वाबों की राह के दरम्यान
चाँद खिड़की से झाँककर रोशनी के लिए आ जाता है

शाम होते जल जाते हैं आँखों में उम्मीदों के दिए
कोई उस सूने घर दस्तक के लिए आ जाता है

जब भी लगा कि पढ़ ली ज़िंदगी की किताब पूरी
सामने एक नया पन्ना पढ़ने के लिए आ जाता है

उजाले अंधेरों में ढलने लगे हैं

उजाले अंधेरों में ढलने लगे हैं
ख़्वाब आँखों में पलने लगे हैं

ज़मीं ही काफी नही थी यहाँ
लोग चाँद पर चलने लगे हैं

एक उम्र धूप का सफ़र करके
रास्ते भी अब बदलने लगे हैं

चुभते हैं तमाम रोशनी के ठिकाने
चमकते सितारे भी जलने लगे हैं

आँखें कह जाती हैं सारा सच
लफ़्ज़ झूठ पर पलने लगे हैं 

Sunday 19 June 2016

घर

माँ-पापा के जाने के बाद कुछ नही रहा घर में घर जैसा.. बस एक चादर जो पड़ी है बिखरे सामान पर और एक ..बिखरे एहसासो पर
जब भी हम जाते हैं उस घर में, तो हटा देते हैं चादर सामान की और दबाए एहसासों की भी..
और फिर चमक आ जाती है घर में ..लगता ही नही कि जैसे वहाँ कोई रहता ही नही ..वही चहल-पहल वही शोर-शराबा वही रौनक जो कभी हुआ करती थी
पुराने एल्बम निकल आते हैं, उनसे जुड़ी यादों के किस्से सुनाए जाते हैं और कभी-कभी चुपके से कोई वो पुरानी तस्वीर छुपाने की कोशिश भी की जाती है जिसमें हम अजीब से लग रहे होते हैं ताकि हमारे बच्चों को दिखाकर मजाक न होने लगे
और पुराने काॅमिक्स चाचा चौधरी, चंपक, नंदन, वेताल,मैनड्रेक,बहादुर , राजन-इकबाल के जासूसी नाॅवेल और भी न जाने क्या-क्या सारे निकल आते हैं ..बंद पड़े रहते हैं जो बक्से में साल भर... जैसे निकलते थे पहले गर्मी की छुट्टियों में ..इतनी किताबें होती थी कि हम उसमें लाइब्रेरी भी खोल लेते थे , पढ़ाई तो शायद ही कभी रात के 2 बजे तक की हो, हाँ काॅमिक्स जरूर छुट्टियों में ऐसे पढ़ी जाती थी जैसे उसका कल एक्जाम होने वाला हो
और दिख जाते हैं कभी-कभी वो छोटे कपड़े भी बचपन के जो माँ अपने हाथों से सिलती थी और बरबस ही आँखें नम कर देते हैं , दिल में एक धक्का सा महसूस होता है कि अब ऐसा कुछ नही होने वाला ..
मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि इतने सालों तक घर बंद रहने के बावजूद भी जब हम सब इकट्ठा होते है तो ऐसा क्यों लगता है कि जैसे वहाँ हमेशा ही कोई रहता है , वो घर जो धूल में लिपटा पड़ा था चमचमाने लगता है जैसे ऐसा ही रहता हो हमेशा ..पर ये बात सिर्फ मुझे ही नही हम सब भाई-बहनों को महसूस होती थी इसका पता मुझे जब चला..हैरान रह गई मैं
हम सब अपनी जिंदगी में बहुत आगे बढ़ गये , व्यस्त हो गये फिर भी हम साल में एक बार जरूर जाते हैं उस घर और अपने एहसासों पर पड़ी चादर को हटाने ।

Saturday 4 June 2016

दूसरा गौतम

क्या लकीरें हैं हाथ की  ,बहुत नाम करेगा
धन्यवाद गुरूजी, चिंता दूर कर दी आपने
बहुत बड़ा ज्ञानी-ध्यानी बनेगा ये
क्या!! नही..हम नही बनने देंगे इसे दूसरा गौतम
बचपन परिवार की निगरानी में..
सुविधाएँ सारी, पर साथी कोई नही ..
लेकिन उसे चिंता नही प्रकृति और किताबें साथ थे उसके
समय के साथ बेफिक्र हुआ परिवार , शादी की भी तैयारी होने लगी
लेकिन एक दिन एक खत ..
"माँ पिताजी , मेरी मंज़िल कुछ और ही है,इन सब के लिए नही बना हूँ , मैं भी दूसरा गौतम नही बनना चाहता बस इसलिए शादी से पहले ही जा रहा हूँ "
- बेटा
( आज सिरहाने के लिए )

Monday 16 May 2016

सूना सपना

"खुशनुमा मौसम होगा ..बस हम-तुम और और हाँ शैम्पेन भी .. एक ही ग्लास में पियेंगें हम एक-दूसरे की आँखों में देखते हुए ..
पर मैं कैसे देख सकती हूँ  ...
मेरी नज़र से ..."
सोचते-सोचते रिया की आँखें फिर भर आईं ..अंकित अक्सर कहता था ये..
ये सब फिर सजा रखा है तुमने ..कमरे को देखकर पूजा बोली रूममेट कम मम्मी ज़्यादा थी वो
ओहो रिया ज़िदगी में आगे बढ़ो, गुजरे कल की नजर से मत देखो आज को..
कैसे न देखूँ ..नजर तो उसी की है
रिया ने अंकित की हार चढ़ी तस्वीर को हाथों में उठाते हुए कहा
( आज सिरहाने के लिए )

Saturday 16 April 2016

निशानी


एक अजीब सी खामोशी थी घर में, उदासी भरी ...जिसे कोई भी नही चाहता ...
अचानक भाई माँ का संदूक उठा कर लाए ...धीरे-धीरे सब सामान निकालना शुरू किए ..
जिसको जो चाहिए ले सकता है ..बोले
और सामान बँटने लगा उनकी निशानी के रूप में..
तुम कुछ नही लोगी ? भाई ने पूछा मुझसे..
तुम लेने में कोई भी बेवकूफी मत करना ..पति ने फुसफुसा के कहा
"बिलकुल नही"...सोचते हुए मैंने माँ की एक पुरानी टूटी ऐनक निकाल ली
(आज सिरहाने "1 कहानी 101 शब्द " के लिए)

Saturday 2 April 2016

तुमने सुना है कभी रात को कुछ कहते हुए ...

पत्ते सपनों के ..
कुछ खिले, कुछ मुरझाए ,
और कुछ नीचे पड़े हुए ...

एक उम्र धूप का सफ़र तय करके ...
सँवरते हैं ख़्वाब रात के 

रात का ज़रा सा काजल क्या बिखरा...
तमाम सपने टकटकी लगाए देखने लगे

आओ कुछ ख़्वाब बुने इस रात के वास्ते ..
कि सफर कटेगा आराम से 

सपनों की खिड़कियों के पर्दे सरकने लगते हैं ...
जब चाँद रात की गलियों से गुज़रता है 

उलझी उलझी रात की लटों को ...
सँवारने चले हैं सपने मेरे

इन ख़्वाबों की चाहत में...
अंधेरे भी रास आने लगे हैं हमें




Friday 1 April 2016

राधा और रघु की होली

“बहुत मजा आया ना तुमका??”

रघु जानता था कि बम फूटने वाला है तभी वो मुँह फेर कर बैठा था

“क्यों.. क्या हुआ?”

एक बच्चे को भी मात दे रही थी उसकी मासूमियत..

शादी के बाद राधा की पहली होली थी मायके में ..बहुत उत्साह के साथ गई थी लेकिन सब हवा हो गया जब पतिदेव को उनकी सालियो सलहज ने छोड़ा ही नही..

“कितने मन से हम आए थे कि तुम्हरे साथ रंग खेंलेगें ..अरे रंग तो छोड़ो तुम्हे तो हमारी तरफ देखन की फुर्सत न मिली”

“का्य बोल रही हो?”

“हाँ–हाँ जब आसपास तितलियाँ हो तो मधुमक्खी को कौन छूना चाहेगा .. ऐसे दूर भाग रहे थे हमसे कि पास आए तो हम डंक मार देंगे तुमका”

“अरे गुस्सा थूको मेरी राधा रानी अब मेरी सोचो ..चार–चार सालियाँ और दो ठो सलहज , सब घेर लिए हमको ..अब हम ठहरे नये दामाद ..अरे अब तुमअही बताओ का चूहा की तरह बिल में दुबक जाते ..अरे नाही हो ..हम भी फिर कलाई पकड़ के रंग दिए सबके”

.. कहते हुए मुस्कुराहट छुपाने की भरसक कोशिश कर रहा था रघु .. पर एक पत्नी तो तो जो न नज़र आए वो भी पकड़ लेती है ..मुस्कुराहट ने आग में घी और डाल दिया ..

“अच्छा !! और हमका बेवकूफ समझे हो का ..हम रंग लगाने खातिर तुम्हारा रास्ता जोहत रहे और तुम जा के लग गये साली–सलहज में ..बहुत चिपक–चिपक कर रंग लगाए जा रहे थे सबके और काहे मोर बन गये थे उस लड़की को देखकर ..कितनी बार उसको ठंडई पिलाई ..अरे वहीं दुकान काहे नही खोल के ही बैठ गये ऊकी खातिर ….ऊ भी जीजाजी–जीजाजी रंग लगाएगें आपको कह के जीजाजी के पीछे ढेर हो रखी और आपहूँ लट्टू होए रहे उसके पीछे ..बड़की मौसी कहत रही हमसे कि दामाद जी काफी रंगीन मालूम होते हैं …”

“अरे तुम गलत समझ रही हो?”.

“हाँ–हाँ अब गलत भी हमही हैं ..और तुम तो राजा रामचंदर हो ना ..सारी बुराइयाँ तो हम में ही हैं ..हम थोड़े मोटे भी हैं उतते खूबसूरत भी नाही हैं ..”

’थोड़े मोटे’ पर ज़्यादा जोर था राधा का ..

“अरे कहाँ मोटी हो .. कटरीना तुमसे ज्यादा भरी लगती है .. तुम ओ गाना नहीं देखि का .. अरे वो है न .. पसमिना नाड़े ?

“नाड़े नहीं धागे”

“हाँ वही .. धागा मोटा है न याने की नाडा”

राधा हंस के शरमा गयी मगर इतनी जल्दी कैसे हार मान लेती..

“कटरीना तो बहुत सुन्दर और स्लिम है”

“पर कटरीना तुम्हारी तरह क्यूट और पोसेससिव थोड़े न है .. उसके लाल बालों से तुम्हारे गालों पर गुस्से का ये लाल रंग ज्यादा जंचता है”

“कुछ भी”

अच्छा कल तुमको रोज गार्डन ले चलेंगे ..थोड़ा अबीर बुक्का भी चुरा लेना अम्मा की मेज से और भाभी से गुझिया भी बँधवा लेना ..”

“अच्छा छोडो .. ई बताओ तुम्हरे फोन में फेसबुक है का  ?

“हाँ बिल्कुल है राधा रानी”

“तब ठीक है ..अब मजा आएगा ..वहीं से फोटू चिपका देना सारी मोहल्ले भर की सालियाँ–सलहज जल जयिहें देख के”

रघु को हँसी आ गई  .. उसकी सलोनी पत्नी को पति के साथ होली खेलने से ज्यादा सालियों को जलाने की फिक्र थी ..

“अच्छा .. धीरे बोलो राधा रिक्शा वाला हँसत है ..कहीं भिड़ाए न दे टेम्पू में”

“का बाबूजी हम कुछु नाही सुने”

घबरा कर रिक्शे वाले ने रेडियो तेज कर दिया .. “रंग बरसे भीगे चुन्नर वाली रंग बरसे .. “

ये गीत सुन के दोनों पति पत्नी एक दूसरे को देख के हंस पड़े..
( आज सिरहाने के लिए )
By:

Ruchi Rana

Shikha Saxena 

Thursday 31 March 2016

एक शाम की दास्तान

60 साल ..वो उम्र जब एक हमसफर की सबसे ज्यादा जरूरत होती है इनसे भी ज्यादा ..
अपने आस-पास बैठे कई नौजवान जोड़े देख कर सोच रहे थे अकेले बैठे जतिन …
एकाएक नज़र थोड़ी दूर बैठी एक महिला पर पड़ी ..शाम का सिंदूरी रंग समुंदर के सीने से उतर कर उसके चेहरे पर चढ़ा जा रहा था..
एक अजनबी को एकटक घूरते देख अचकचा गई ..जतिन झेंप कर उठ गये और वो भी …
लेकिन अगले दिन नही ..
मुस्कुराई वो ..और जतिन भी
शाम के कारवाँ में दो हमसफर और जुड़ गये थे ..
(आज सिरहाने के लिए) 

Friday 8 January 2016

धूप का टुकड़ा ....

जब छाने लगते हैं 
  निराशा के बादल ...
और होने लगती हैं
          बेमौसम अनचाही बारिशें ...
तभी आ जाता है 
उड़ता हुआ ...
पता नही 
कहाँ से
एक धूप का टुकड़ा ...
उम्मीद से भरा हुआ ...
और जागने लगती हैं
फिर से ..
जीने की ख्वाहिशें ....

(तस्वीर -अरूणा जी )

Tuesday 5 January 2016

सपने ....

                                       
                                          सपने
                                ( आज सिरहाने के लिए )
                                     फोटो - राहुल जैन                  
ये टैक्सी मैं इसलिए चलाता हूँ ताकि तुम बड़ी होकर बड़ी अफसर बनकर अपनी गाड़ी में घूमों .....
रोज सुबह बापू उसकी आँखों में सपने भर जाते लेकिन लौटती शाम वो सपने दिन में ही कहीं छोड़ आती
शराब ने पहले घर को खोखला फिर बापू को दूर कर दिया
उन आँखों में अब कोई सपना नही एक खालीपन बस गया था ...
लेकिन एक दिन माँ को सुबह तैयार देखकर आँखों में कुछ प्रश्न उभरे ..माँ मुस्कुराई ...
जा रही हूँ ...उसी गाड़ी से फिर कुछ सपने खरीदने ...
आँखों का खालीपन सिमटता जा रहा था ...सपने अपनी जगह वापस आने लगे थे