Sunday 19 June 2016

घर

माँ-पापा के जाने के बाद कुछ नही रहा घर में घर जैसा.. बस एक चादर जो पड़ी है बिखरे सामान पर और एक ..बिखरे एहसासो पर
जब भी हम जाते हैं उस घर में, तो हटा देते हैं चादर सामान की और दबाए एहसासों की भी..
और फिर चमक आ जाती है घर में ..लगता ही नही कि जैसे वहाँ कोई रहता ही नही ..वही चहल-पहल वही शोर-शराबा वही रौनक जो कभी हुआ करती थी
पुराने एल्बम निकल आते हैं, उनसे जुड़ी यादों के किस्से सुनाए जाते हैं और कभी-कभी चुपके से कोई वो पुरानी तस्वीर छुपाने की कोशिश भी की जाती है जिसमें हम अजीब से लग रहे होते हैं ताकि हमारे बच्चों को दिखाकर मजाक न होने लगे
और पुराने काॅमिक्स चाचा चौधरी, चंपक, नंदन, वेताल,मैनड्रेक,बहादुर , राजन-इकबाल के जासूसी नाॅवेल और भी न जाने क्या-क्या सारे निकल आते हैं ..बंद पड़े रहते हैं जो बक्से में साल भर... जैसे निकलते थे पहले गर्मी की छुट्टियों में ..इतनी किताबें होती थी कि हम उसमें लाइब्रेरी भी खोल लेते थे , पढ़ाई तो शायद ही कभी रात के 2 बजे तक की हो, हाँ काॅमिक्स जरूर छुट्टियों में ऐसे पढ़ी जाती थी जैसे उसका कल एक्जाम होने वाला हो
और दिख जाते हैं कभी-कभी वो छोटे कपड़े भी बचपन के जो माँ अपने हाथों से सिलती थी और बरबस ही आँखें नम कर देते हैं , दिल में एक धक्का सा महसूस होता है कि अब ऐसा कुछ नही होने वाला ..
मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि इतने सालों तक घर बंद रहने के बावजूद भी जब हम सब इकट्ठा होते है तो ऐसा क्यों लगता है कि जैसे वहाँ हमेशा ही कोई रहता है , वो घर जो धूल में लिपटा पड़ा था चमचमाने लगता है जैसे ऐसा ही रहता हो हमेशा ..पर ये बात सिर्फ मुझे ही नही हम सब भाई-बहनों को महसूस होती थी इसका पता मुझे जब चला..हैरान रह गई मैं
हम सब अपनी जिंदगी में बहुत आगे बढ़ गये , व्यस्त हो गये फिर भी हम साल में एक बार जरूर जाते हैं उस घर और अपने एहसासों पर पड़ी चादर को हटाने ।

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