बंद पड़ी है पता नही कब से ..अलमारी के अंदर
खाली-खाली पन्नो के खाली-खाली दिन
बस पलटते जाते है ..बेमतलब से
समझ नही पा रही है वो कि
जिन बातों को अपने सीने में छुपाती थी
उन्ही बातों को अब छुपाया जा रहा है क्यों उससे ही
जब भी खुलती है अलमारी ,
मैं नज़रें चुराती हूँ
पता नही किस ग्लानि से ...
और वो भी देखती है,
पता नही किस उम्मीद से ...
कि शायद आज वो मेरे हाथो मे होगी
और कही जाएँगी कुछ बातें उससे ...
तरसती रहती है सुनने को वो
जो मुझसे ....
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